मिनामाटा त्रासदी हमें ये सिखाती है कि जहरीले पदार्थों पर नियंत्रण न हो तो कितना बड़ा नुकसान हो सकता है, पढ़ें डॉ अंकुर खरे का विश्लेषण.
पारा एक भारी धातु है, जो हमारे शरीर के लिए किसी भी तरह से फायदेमंद नहीं है। यह जहरीला होता है और इससे हमारी सेहत और पर्यावरण दोनों पर बुरा असर पड़ता है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण है जापान की मिनामाटा त्रासदी। 1950 के दशक में जब फैक्ट्रियों का कूड़ा पारे से भरकर मिनामाटा खाड़ी में गिरा तो वहां की मछलियों में ज़हर जमा हो गया। जब लोग वो मछलियाँ खाए, तो उन्हें तंत्रिका तंत्र की बीमारियाँ, लकवा और मौत तक हो गई।
इस घटना के बाद सारा विश्व मिला और “मिनामाटा कन्वेंशन ऑन मर्करी” बनाया गया, ताकि पारे के इस्तेमाल और उसका फैलाव नियंत्रण में रखा जा सके। भारत ने 2018 में इस समझौते को स्वीकार किया और पारा के उत्सर्जन को कम करने की दिशा में काम शुरू किया।
भारत में पारा आने के सबसे बड़े स्रोतों में दंत चिकित्सा है, क्योंकि दांत भरने में डेंटल अमलगम का इस्तेमाल होता है, जिसमें पारा होता है। डेंटल अमलगम से निकलने वाली पारा की भाप डॉक्टरों और मरीजों दोनों के लिए नुकसानदायक होती है। लंबे समय तक इस जहरीली भाप के संपर्क में रहने से दिमाग, गुर्दे, और बच्चो के विकास पर बुरा असर पड़ सकता है।
इसके अलावा, हॉस्पिटल के पुराने उपकरण जैसे थर्मामीटर, ब्लड प्रेशर मशीन आदि में भी पारा होता है। इन्हें सही तरह से फेंकना जरूरी है वरना पारा मिट्टी और पानी को भी नुकसान पहुंचाता है। छोटे स्तर पर सोना निकालने में भी पारा इस्तेमाल होता है, जिससे आसपास के इलाके के पानी और हवा में पारा फैल जाता है और वहां रहने वाले लोगों की सेहत खराब होती है।
औद्योगिक काम-काज, प्रयोगशालाओं से निकलने वाले रसायन और कोयले के धुआं भी पारे का स्रोत हैं। जब पारा पर्यावरण में जाता है, तो वो मिथाइल पारे में बदल जाता है, जो मछलियों में जमा हो जाता है। इन मछलियों का सेवन करने से खासकर बच्चों और गर्भवती महिलाओं को बहुत खतरा होता है।
सरकार ने पारे के सुरक्षित उपयोग के लिए कई कदम उठाए हैं—जैसे कि डेंटल अमलगम का उपयोग कम करना, पारा से जुड़े अपशिष्टों का सही ढंग से निपटान, और पर्यावरण की निगरानी शुरू करना। लेकिन अभी भी बड़ी चुनौतियां हैं, जैसे नियमों का ठीक से पालन, लोगों में जागरूकता बढ़ाना, और नई तकनीकों में निवेश करना।
आगे चलकर भारत को विभिन्न मंत्रालयों, उद्योगों और शोध संस्थानों के बीच बेहतर तालमेल बनाना होगा। साथ ही, पारा प्रदूषित इलाकों में रहने वाले लोगों की मदद करनी होगी और स्वास्थ्य सेवाओं में सही प्रशिक्षण व जागरूकता बढ़ानी होगी।
मिनामाटा त्रासदी हमें ये सिखाती है कि जहरीले पदार्थों पर नियंत्रण न हो तो कितना बड़ा नुकसान हो सकता है। इसलिए, भारत को यह सुनिश्चित करना है कि विकास के साथ-साथ स्वस्थ और सुरक्षित पर्यावरण भी हमारा लक्ष्य बने। पारा प्रबंधन सिर्फ एक नियम नहीं, बल्कि हमारी आने वाली पीढ़ी की सुरक्षा की जिम्मेदारी भी है।

(About Writer Ankur Khare: मैं विज्ञान में डॉक्टरेट हूं और मेरा शोध स्थायी जैव-अविघटनशील प्रदूषकों (Persistent Organic Pollutants – POPs)
और अपशिष्ट प्रबंधन के क्षेत्र में केंद्रित है। मैंने POPs प्रबंधन पर कई शोध और समीक्षा लेख प्रकाशित किए हैं। मुझे कई राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय संगठनों में कार्य करने का अनुभव प्राप्त है। मेरा उद्देश्य पर्यावरणीय स्थिरता, विषैले रसायनों के प्रबंधन और अपशिष्ट नीतियों पर प्रभावी शोध व समाधान विकसित करना है।)
 
            