समाजवादी पार्टी छोड़ने के बाद यूपी के पूर्व मंत्री स्वामी प्रसाद मौर्य ने अपनी नई पार्टी बना ली। पार्टी का नाम है राष्ट्रीय शोषित समाज पार्टी। सवाल है कि यूपी की राजनीति में स्वामी प्रसाद मौर्य की पार्टी क्या अपनी जगह बना पाएगी और कोई प्रभावी असर दिखा पाएगी? या फिर राजनीतिक दलों की भीड़ में महज एक और राजनीतिक दल बन कर रह जाएगी?
स्वामी प्रसाद मौर्य खुद अपनी इस पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं। उनके पास करीब चार दशक का लंबा राजनीतिक अनुभव है और वह पिछड़ी जातियों में कुशवाहा-शाक्य, मौर्य, सैनी, दांगी समाज आदि की नुमाइंदगी करने का दावा करते हैं। वह समाजवादी पार्टी से इस्तीफा देकर नई पार्टी बनाए हैं। इससे पहले वह भारतीय जनता पार्टी में थे और भाजपा की पिछली सरकार में मंत्री भी रहे हैं। भाजपा से पहले वह बहुजन समाज पार्टी में थे। इसके अलावा वह लोकदल और जनता दल के साथ भी रहे हैं। उनकी बेटी संघमित्रा मौर्य भाजपा में हैं और बदायूं से सांसद हैं।
चुनाव 2024 से पहले बनी राष्ट्रीय शोषित समाज पार्टी के नाम से ही साफ है और स्वामी प्रसाद ने अपनी मंशा भी यही बताई है कि इस पार्टी के जरिए उनका लक्ष्य देश, समाज, दलितों-पिछड़ों के हितों की रक्षा करना और उनके लिए आवाज उठाना है। लोकसभा चुनाव 2024 में इस पार्टी की भागीदारी और हिस्सेदारी क्या होगी, किस तरीके से स्वामी अपनी पार्टी को आगे बढ़ाएंगे यह आगे पता चल ही जाएगा लेकिन यह तय है कि स्वामी प्रसाद मौर्य उस राजनीतिक कड़ी को तो आगे बढ़ाएंगे ही जिस पर अनुप्रिया पटेल, ओमप्रकाश राजभर और संजय निषाद की पार्टी चलती आ रही हैं।
अभी हमने जिन पार्टियों का नाम लिया वह भले ही बात सर्वसमाज की करते हैं लेकिन उनका प्रभाव जाति विशेष पर ही अधिक है। इनके नेताओं ने अपनी जाति को संगठित किया है और उनका उसमें प्रभाव है और वही इनकी ताकत भी है। अकेले लड़कर इनका वजूद नहीं लेकिन साथ मिलकर अपना और दूसरे का दोनों का भला कर सकते हैं और अलग होकर अपना फायदा नहीं तो दूसरे का नुकसान भी जरूर कर सकते हैं।
अनुभव और सियासत की समझ के मामले में स्वामी प्रसाद मौर्य किसी भी नेता से कम नहीं हैं, बल्कि ज्यादा ही हैं। कुशवाहा, मौर्य, शाक्य, सैनी समाज के भीतर उनकी पकड़ अच्छी है। उत्तर प्रदेश में इन जातियों की संख्या अच्छी खासी है। इन जातियों के संगठनों के आंकड़ों की मानें तो यह जातियां यादव समाज की संख्या से भी ज्यादा है। यह समाज राजनीतिक रूप से संगठित नहीं है, हालांकि इसका झुकाव भाजपा की तरफ ज्यादा दिखता है।
इस समाज से बड़े नामों में यूपी की राजनीति में उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य हैं तो स्वामी प्रसाद मौर्य भी हैं। इनके अलावा जन अधिकार पार्टी के नेता बाबू सिंह कुशवाहा हैं तो महान दल वाले केशव देव मौर्य भी हैं। मौजूदा विधानसभा में इस समाज के 12 विधायक जीतकर आए हैं। इनमें से 11 भाजपा के टिकट पर जीते हैं। साल 2017 से इस समाज का वोट तेजी से भाजपा की ओर शिफ्ट हुआ है। इस बिरादरी को वोट करीब 15 लोकसभा सीटों पर निर्णायक भूमिका में है।
स्वामी प्रसाद मौर्य यह अच्छे से जानते हैं कि अकेले उनकी राह आसान नहीं। यह भी कि वे भले ही जीतने की स्थिति में न हों लेकिन कई सीटें ऐसी हैं जहां उनकी जाति के मतदाता बड़ी संख्या में हैं और वह हराने की भूमिका में जरूर खुद को देख सकते हैं।
समाजवादी पार्टी को वह खुद छोड़ कर आए हैं और समाजवादी पार्टी में रहते हुए उन्होंने राम, राम चरित मानस और अन्य हिन्दू देवी-देवताओं को लेकर जैसी टिप्पणियां की उससे उनका फिलहाल भाजपा का करीबी या सहयोगी बनना भी संभव नहीं है। उत्तर प्रदेश की राजनीति की समझ रखने वालों का मानना है कि कम से कम इस चुनाव में मौर्य का रुख काफी हद तक उनकी बेटी संघमित्रा मौर्य को भाजपा की तरफ से टिकट मिलने या नहीं मिलने पर निर्भर करेगा।
संघमित्रा मौर्य को भाजपा का टिकट मिलने की सूरत में स्वामी प्रसाद मौर्य समाजवादी पार्टी और उसके नेता अखिलेश यादव के पीडीए समीकरण को खारिज करते हुए दिखाई दे सकते हैं। वह अपने आपको बेटी संघमित्रा को जिताने तक ही सीमित रख सकते हैं और टिकट नहीं मिलने की सूरत में बेटी संघमित्रा को अपनी पार्टी से उम्मीदवार बना सकते हैं और साथ ही अपने प्रभाव वाले क्षेत्रों में कुछ कैंडिडेट उतार कर भाजपा और सपा दोनों की मुश्किलों को बढ़ा सकते हैं।
स्वामी सभी राजनीतिक दलों में रहे हैं। राजनीति में उनके आगे बढ़ाए लोग हर दल में हैं और हर समाज के नेता भी स्वामी से जुड़े हुए हैं। ऐसे में आने वाले वर्षों में वह एक खास वोटबैंक की राजनीति करते दिखाई दे सकते हैं और कुछ सीटों पर हर एक बड़ी पार्टी की जरूरत बन सकते हैं जैसा कि राजभर, अनुप्रिया पटेल या संजय निषाद की पार्टियां हैं।